बीजेपी के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की सियासी पटकथा लिखी जा चुकी है, जिसका ऐलान किसी भी समय हो सकता है. महाराष्ट्र, बिहार, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तराखंड समेत 22 राज्यों में बीजेपी ने अपने प्रदेश अध्यक्षों का ऐलान कर दिया है, लेकिन सियासी तौर पर देश के सबसे अहम राज्य उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष को लेकर अभी तक कोई फैसला नहीं हो सका है. यूपी बीजेपी अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह चौधरी का कार्यकाल खत्म हो चुका है और अब उनकी जगह नए चेहरे की तलाश चल रही है.
यूपी में बीजेपी की सियासी उलझन में फंसी?
बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश में प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव काफी मुश्किल हो रहा है, क्योंकि पार्टी को कई तरह के सियासी समीकरणों का भी ध्यान रखना पड़ रहा है. उत्तर प्रदेश में 2027 के विधानसभा चुनाव होने हैं और पार्टी को सरकार व संगठन में बेहतर तालमेल को ध्यान में रखते हुए अध्यक्ष का चुनाव करना है. बीजेपी की सियासी रणनीति उत्तर प्रदेश में बतौर प्रदेश अध्यक्ष ओबीसी या दलित चेहरे को मौका देने की थी, लेकिन इटावा प्रकरण के बाद ब्राह्मण चेहरे को लेकर भी चर्चा तेज हो गई है.
उत्तर प्रदेश की सत्ता पर योगी आदित्यनाथ विराजमान हैं, जो ठाकुर जाति से आते हैं. सत्ता सवर्ण हाथों में है तो संगठन की जिम्मेदारी ओबीसी या फिर दलित को सौंपने की है. 2024 के लोकसभा चुनाव में दलित और ओबीसी दोनों ही वर्ग के वोट बैंक छिटके हैं, ऐसे में बीजेपी यह तय नहीं कर पा रही है कि मौजूदा सियासी परिस्थितियों में किस वर्ग पर दांव खेला जाए. इसके अलावा बीजेपी अपने कोर वोट बैंक सवर्ण समाज को भी साधे रखना चाहती है, सत्ता ठाकुर समाज के हाथ में है तो संगठन की बागडोर ब्राह्मण चेहरे को दी जाए. इसी कशमकश में बीजेपी अपना नया अध्यक्ष अभी तक नहीं तलाश सकी है.
सपा के पीडीए फॉर्मूले का काउंटर प्लान
बीजेपी यूपी में अपने नए प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति को लेकर सियासी नफा-नुकसान का आकलन करने में जुटी है. यूपी में पिछले तीन प्रदेश ओबीसी समुदाय से ही बनते आ रहे हैं. 2014 के बाद केशव प्रसाद मौर्य और उसके बाद स्वतंत्र देव सिंह और 2022 के बाद भूपेंद्र चौधरी को प्रदेश संगठन की बागडोर सौंपी थी. बीजेपी के तीनों ही नेता ओबीसी समाज से आते हैं. इसके चलते माना जा रहा था किसी सवर्ण समाज को बागडोर सौंपी जाए, लेकिन योगी आदित्यनाथ के सीएम होने के चलते सत्ता और संगठन दोनों ही सवर्ण समाज को देने से ओबीसी के नाराज होने का खतरा बढ़ सकता है.
2024 के लोकसभा चुनाव में जिस तरह सपा ने पीडीए यानी पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक का समीकरण सेट किया तो बीजेपी चारो खाने चित हो गई. यूपी में बीजेपी की सीटें 62 से घटकर 33 पर आ गई. ऐसे में बीजेपी अपने प्रदेश अध्यक्ष के बहाने सपा की पीडीए वाली सियासत का काउंटर प्लान तैयार करना चाहती है. बीजेपी 2027 चुनाव से पहले सपा के पीडीए की काट तलाश लेना चाहती है, जिसके लिए किसी ओबीसी या फिर दलित को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के लिए मंथन कर रही है.
ओबीसी और दलित में किसे मिलेगी कमान
ओबीसी समुदाय से बीजेपी मौर्य, कुर्मी और जाट समाज के प्रदेश अध्यक्ष बना चुकी है. सियासी गलियारों में लोधी समाज से आने वाले केंद्रीय मंत्री बीएल वर्मा और यूपी में पशुपालन मंत्री धर्मपाल सिंह के नाम की चर्चा है. कुर्मा समुदाय से मंत्री स्वतंत्र देव सिंह, मल्लाह समाज से आने राज्यसभा सांसद बाबूराम निषाद और गुर्जर समाज के अशोक कटारिया के भी चर्चा हो रही है. इसी तरह अनुसूचित जाति से पूर्व सांसद राम शंकर कठेरिया और विद्यासागर सोनकर के नाम भी लिए जा रहे हैं.
यूपी की सियासत में यह संयोग ही है कि बीजेपी ने हाल के वर्षों में चुनाव से ठीक पहले ओबीसी समाज से प्रदेश अध्यक्ष चुनती रही है. 2017 से पहले केशव मौर्य, 2022 से पहले स्वतंत्र देव सिंह और उसके बाद भूपेंद्र चौधरी को पार्टी कमान सौंपी गई थी. ऐसे में पार्टी एक ऐसे ओबीसी नेता को आगे बढ़ाना चाहती है जो पार्टी को चुनाव में जीत दिला सके. साथ में गैर-यादव ओबीसी वोटों को भी एकजुट कर सके. सियासी जानकारों का कहना है कि बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष का पद सिर्फ भरना नहीं है बल्कि उसके जरिए राजनीतिक समीकरण साधने हैं.
ब्राह्मण चेहरे को क्या सौंपी जाएगी कमान
इटावा की घटना के बाद ब्राह्मण सियासत चर्चा के केंद्र में है. ब्राह्मण बनाम यादव का सियासी एजेंडा पूरी तरह से सेट हो गया है. ब्राह्मण समुदाय की सपा से उठी नाराजगी का लाभ उठाने के फिराक में बीजेपी है. इसके चलते बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष के लिए ब्राह्मण चेहरे के भी कयास लगाए जाने लगे हैं. पिछले दिनों सपा ने ठाकुर बनाम ब्राह्मण नैरेटिव के बहाने सियासी दांव चल रही थी और उसकी कोशिश ब्राह्मणों को साधने की थी.
इटावा की घटना ने सपा के करीब आ रहे ब्राह्मण समाज को दूर कर दिया है और अब बीजेपी उसे गले लगाने के फिराक में है, लेकिन उसके चलते पीडीए की सियासत को काउंटर करने की रणनीति फेल ही है. इसीलिए बीजेपी ने प्रदेश अध्यक्ष के चयन में समय लगा रही है. इस बहाने सूबे के सियासी नफा और नुकसान के आकलन में जुटी है, क्योंकि सत्ता और संगठन दोनों ही सवर्ण समाज के हाथ में होने से बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग फेल हो सकती है.
प्रदेश अध्यक्ष से तय होगी बीजेपी की सियासत
बीजेपी उत्तर प्रदेश में किस दिशा में आगे बढ़ेगी, वो प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव से तय हो जाएगा. बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष ही नहीं बना रही है बल्कि 2027 के चुनाव से पहले अपने सियासी समीकरण को भी दुरुस्त करने की है, जो 2024 चुनाव से गड़बड़ा गया है. प्रदेश अध्यक्ष यह एक बड़ा कदम होगा, जिससे सूबे के जातीय समीकरणों को बदला जा सकता है. साथ ही बीजेपी अपनी बात को फिर से लोगों तक पहुंचाना चाहती है. उत्तर प्रदेश के चुनाव में जातीय बिसात में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.
यूपी के राजनीतिक विश्लेषकों का मानना कि सपा के पीडीए फॉर्मूले ने बीजेपी के दबदबे को तोड़ने में कामयाब रहा है. अखिलेश ने अपने इस दांव से नीचे से ऊपर तक एक जाति गठबंधन बनाया जो लोगों को पसंद आया. सपा के इस दांव को काउंटर करने के लिए बीजेपी अगले अध्यक्ष के जरिए संदेश देने की रणनीति बना रही है. बीजेपी 2027 चुनाव से पहले एक मजबूत सोशल इंजीनियरिंग के उतरना चाहती है.
बीजेपी को कब मिलेगा नया प्रदेश अध्यक्ष
बीजेपी को यूपी में नया प्रदेश अध्यक्ष कब मिलेगा, इस पर सभी की निगाहें लगी हुई हैं. 22 प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद अब बीजेपी के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव में कोई सियासी अड़चन नहीं रह गई है. देश के 37 प्रदेश यूनिट्स भाजपा ने देश भर में बना रखी हैं, जिनमें से 22 का चुनाव हो गया है. इस तरह कोरम पूरा है और कभी भी राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव कराया जा सकता है. इसीलिए यूपी अध्यक्ष चुनने के लिए नेतृत्व वक्त भी ले सकता है. बीजेपी अपने नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के बाद यूपी में प्रदेश अध्यक्ष का फैसला ले सकती है.
बीजेपी फिलहाल मानसून सेशन से पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनने पर जोर है. यूपी में बीजेपी यदि तेजी से अध्यक्ष चुनना चाहे तो भी पहले वोटर लिस्ट घोषित करनी होगी. फिर नामांकन की तारीख तय होगी और उसके वापस लेने का समय देना होगा. अंत में एक ही कैंडिडेट होने पर नाम की घोषणा हो जाएगी, लेकिन इस प्रक्रिया में भी कम से कम चार दिन का समय लगेगा.
बीजेपी संगठन के आंतरिक चुनाव की नियमावली के अनुसार हर विधानसभा से एक सदस्य वोट करता है. इस तरह से 403 विधानसभाएं हैं तो फिर बड़ी संख्या में मेंबर हो गए. इसके अलावा 20 फीसदी सांसद और विधायक भी वोटिंग में हिस्सा लेते हैं. जिलाध्यक्ष चुनाव में मौजूद रहते हैं, लेकिन उनके पास वोट का कोई अधिकार नहीं रहता. इस तरह से इतने लोगों का नाम वोटर लिस्ट में डालना होगा और मतदान कराना एक लंबी प्रक्रिया होगी.